इस बार गाँधी जयंती रविवार को है. हाय! कैसे साँप लोट रहे होंगे कुछ लोगों के सीने पर. सोचते होंगे, "काश जयंती सोमवार को पड़ती तो extended weekend मिल जाता क्योंकि मंगलवार को दशहरा है." ऐसा नहीं है कि साँप-लोटन आज शुरू हुआ हो; हो सकता है दो-तीन महीने से हो रहा हो, या 1 जनवरी से जब से कैलेंडर देखा हो. कल तो "छाती में सँपवा लोटत" नामक त्रासदी का चरम बिंदु होगा.
निकम्मापन कैंसर की तरह इस देश की नस नस में फैल गया है. क्या सरकारी, क्या निजी कर्मचारी, दो चार को छोड़कर, कोई काम करना ही नहीं चाहता. किसी के जन्मदिवस या मृत्युदिवस पर मिलने वाला अवकाश तो इस निकम्मेपन को छुपाने की एक युक्ति मात्र है.
कुछ साल पुरानी एक घटना याद आती है. भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की मृत्यु हुई. भारत सरकार ने शोकावकाश घोषित किया. लेकिन हमारे डीएवी विश्वविद्यालय में अवकाश को लेकर एक मंत्रणा शुरू हुई. बहुत से शिक्षक इस मंत्रणा के परिणाम का साँस रोककर यूँ इंतज़ार कर रहे थे मानो उम्रक़ैद पाया हुआ कोई मुजरिम अपनी रिहाई के आदेश का इंतज़ार कर रहा हो. शाम होते-होते बेचैनी असहनीय होती जा रही थी. फिर जैसे ही अवकाश घोषित हुआ ढोल, नगाड़े बज उठे! गिद्दा, भंगड़ा से सारा वातावरण झूम उठा! ऐसा आनंद प्रस्फुटित हुआ कि पूरा ब्रह्मांड रसमय हो गया. समस्त नर-नारी, पशु-पक्षी, देवी-देवता आवविभोर हो गए! आनंद इतना प्रचुर था कि पूरी पृथ्वी के समुंदरों को यदि स्याही बना दिया जाए तो भी उसका बखान नहीं किया जा सकता था. समुंदर-स्याही वाला रूपक बड़ा पुराना है. आधुनिक समय के लिए कुछ नया सोचते हैं. आनंद इतना प्रचुर था कि 100TB की वर्ड फाइल में भी न समाता. ऐसी मदहोशी में कई शिक्षकों ने व्हाट्सएप ग्रुप में दनादन अवकाश की breaking news को साझा किया. ध्यान ही न रहा कि शोक का अवकाश है, वह भी ऐसे व्यक्ति की मृत्यु का जो एक सुलझे नेता, संवेदनशील कवि, और प्रखर वक्ता थे. छुट्टी का बुख़ार जब थोड़ा उतरा तो कुछ लोगों ने "RIP", "ॐ शांति", "अटल जी अमर रहे", "जब तक सूरज, चाँद रहेगा अटल जी का नाम रहेगा", इत्यादि शब्दों से उन्हें श्रद्धांजलि दी.
क्या बापू का जन्मदिवस और क्या अटल जी का मृत्युदिवस, छुट्टीख़ोरो को तो केवल एक चीज़ से मतलब होता है: काम न करना पड़े. ऐसे लोगों के लिए कल का दिन बहुत भारी गुज़रेगा. परमात्मा से प्रार्थना है कि उन्हें संबल प्रदान करे.